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बड़ा सवाल : जन्म दर में बेटे अधिक पर नवजात मौत में बेटियों की संख्या ज्यादा… क्या आज भी हावी है रूढ़िवादिता?

  • राष्ट्रीय बालिका दिवस विशेष

दिलीप डूडी, जालोर. समाज सुधारकों के प्रयास, अच्छी व्यवस्थाएं और सरकारी सुविधाएं होने के दावों के बीच नवजात मामलों में बेटियों की मौत के आंकड़े चिंता बढ़ाने वाले है। जालोर जिले में तो आंकड़े कुछ यही जाहिर कर रहे हैं। जालोर जिले में बीते दो वर्षों के आंकड़ों पर नजर डालें तो स्पष्ट हो रहा है कि जन्म दर में बेटियां कम है, लेकिन मृत्यु दर में बेटियां ज्यादा है। नवजात (जन्म से एक वर्ष के भीतर मृत्यु) की मौत रोकने को लेकर सरकार हर सम्भव बेहतर प्रयास जरूर करती है, इसके बावजूद कई प्रकार के कारणों के चलते नवजात बेटे-बेटियों की मौत के आंकड़े कम नहीं हो पा रहे है। सरकारी चिकित्सा संस्थानों में दर्ज आंकड़े नवजात की सेहत के प्रति चिंता दर्शा रहे है।

22307 में से 465 बेटियां एक वर्ष नहीं जी पाई

जालोर जिले की बात करें तो वर्ष 2022-23 वित्तीय वर्ष में जालोर जिले में 45 हजार 373 शिशु ने जन्म लिया। इनमें से 23 हजार 66 बेटे व 22 हजार 307 बेटियां थी, लेकिन एक वर्ष की अवधि (नवजात) की अवस्था मे 842 ने दम तोड़ दिया। जिनमें से 465 बेटियां और 377 बेटे हैं। इस अवधि में बेटियों का जन्म बेटों की तुलना में कम हुआ है, लेकिन मौत बेटों से अधिक हुई है। इसी प्रकार अप्रैल 2023 से दिसम्बर 2023 तक की बात करें तो इस वर्ष हालांकि जन्मदर कम हुई है, लेकिन मौत के मामले में आंकड़े बेटियों के ही ज्यादा है। इस अवधि में 21 हजार 956 शिशु ने जन्म लिया। जिनमें से 11 हजार 297 बेटे व 10 हजार 659 बेटियां जन्मी, लेकिन 259 ने नवजात अवस्था में ही दम तोड़ दिया। यहाँ 133 बेटियों की मृत्यु हुई, वहीं 125 बेटे व एक ट्रांसजेंडर की मौत हुई।

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जिला स्तर पर शिशु की बेहतर सुरक्षा के लिए है एमसीएच

जालोर जिला मुख्यालय पर सुरक्षित प्रसव के साथ साथ शिशु के बेहतर ख्याल के लिए मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य केंद्र का संचालन किया जा रहा है। जहां सुरक्षित प्रसव के साथ साथ शिशु की सेहत में कमजोरी होने पर उसे उचित पोषण देने व मैच्योर करने के लिए आधुनिक मशीनें भी तैनात की हुई है। इससे मृत्यु दर में जरूर कमी आई है, लेकिन लिंगानुपात के मुकाबले मृत्यु दर में बेटियों की संख्या अधिक होना कहीं न कहीं अभी भी रूढ़िवादी परम्परा की ओर इशारा कर रही है।

तीन प्रमुख कारण ये भी…
  • समाज में रूढ़िवादिता आज भी हावी है, जिसके कारण बेटे की तुलना में बेटियों के उपचार को अधिक महत्व नहीं देना
  • माता की शारीरिक कमी के चलते कमजोर पोषण का शिशु पर प्रभाव
  • बेटे की चाह में बेटियां अधिक होने पर परिवार द्वारा ज्यादा ध्यान नहीं देना

स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ रघुनन्दन विश्नोई का मानना है कि मृत्यु दर में दो प्रकार के मामले अक्सर हमारे सामने आते है। जन्मजात के सात दिन की अवधि में तो बेटों की मौत के आंकड़े ज्यादा रहते है, लेकिन जैसे जैसे एक साल तक की अवधि बढ़ती है, तब बेटियों की संख्या बढ़ जाती है, उसमें बेटों की तुलना में बेटियों में इम्युनिटी पॉवर की कमी होना भी प्रमुख कारण है, दूसरा परिजन भी बेटे की तुलना में बेटी के स्वास्थ्य को देरी से गम्भीरता से लेते है।

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रोटरी क्लब के अध्यक्ष डॉ पवन ओझा बताते है कि इस असमानता की मुख्य वजह बालिका शिशु पर बालक शिशु की प्राथमिकता है, बेटे की इच्छा परिवार नियोजन के छोटे परिवार की संकल्पना के साथ जुड़ती है और दहेज़ की प्रथा ने ऐसी स्थिति को जन्म दिया है, जहाँ बेटी का जन्म किसी भी कीमत पर रोका जाता है। इसलिए समाज के अगुआ लोग माँ के गर्भ में ही कन्या की हत्या करने का सबसे गंभीर अपराध करते हैं। लोगों का मानना है कि लड़के परिवार के वंश को जारी रखते हैं जबकि वो ये बेहद आसान सी बात नहीं समझते कि दुनिया में लड़कियाँ ही शिशु को जन्म दे सकती हैं, लड़के नहीं। पीसीपीएनडीटी एक्ट का क्रियान्वयन एवं पालना सही तरीके से सुनिश्चित हो जिससे गर्भाधान पूर्व और जन्म-पूर्व भ्रूण के लिंग का निर्धारण करने की कुप्रथा के प्रति जनता जागरूक हो सके।

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