संदीप जोशी (सदस्य NCTE) व्याख्याता, रा उ मा विद्यालय रेवत. प्राचीन काल से ही भारतीय शिक्षा में गुरु शिक्षा परम्परा का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। वशिष्ठ -श्रीराम ,चाणक्य- चंद्रगुप्त , श्रीरामकृष्ण परमहंस -स्वामी विवेकानंद, स्वामी विरजानंद -स्वामी दयानंद सरस्वती जैसे मनीषियों की एक विस्तृत श्रृंखला है। अपने देश में गुरु एवं शिष्य, दोनों ने अपने जीवन से अनुकरणीय आदर्श खडे किए है एवं पूरे विश्व को प्रेरणा दी है। ऐसी गौरवशाली परम्परा वाले जीवन दर्शन एवं निर्वहन के आधार पर ही भारत विश्व गुरु के पद पर सुशोभित हुआ । पांडु पुत्र अर्जुन भी एक महान एवं अद्भुत शिष्य थे। उनका शिष्यत्व, उनका विद्यार्थीपन हम सभी के लिए प्रेरक एवं अनुकरणीय है।
महाभारत काल में अर्जुन ने अपने कार्यों से अपनी एक विशेष पहचान स्थापित की हैं। पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्री कृष्ण, दृढ़ प्रतिज्ञ भीष्म पितामह, सत्यवादी युधिष्ठिर एवं महा बलशाली भीम के होते हुए भी अर्जुन केंद्रीय पात्र के रूप में पूरी महाभारत में व्याप्त है।
बचपन से ही उसने स्वयं में कुछ विशेष गुणों का विकास किया जिनके कारण वह सदैव सर्वप्रिय रहा। घर में माता कुंती का, शिष्य के रूप में गुरु द्रोण का,भाइयों में शेष चारों पांडवों का एवं भगवान श्री कृष्ण का भी वह अत्यंत स्नेहिल था।अपने छात्र जीवन में अपनी योग्यता के बल पर वह सदैव प्रथम ही रहा । चिड़िया की आंख वाला उदाहरण सब को ध्यान में है ही जहां अन्य विद्यार्थियों को विभिन्न दृश्य दिख रहे थे वही अर्जुन की एकाग्रता केवल अपना लक्ष्य चिड़िया की आंख ही देख पा रही थी।
लक्ष्य के प्रति इतनी एकाग्रता हो तब सफलता और श्रेय मिलता है। अर्जुन के बचपन की एक और घटना अध्ययन के प्रति उसके लगनशील होने का प्रमाण है। एक बार भीम अंधेरे में भोजन कर रहे थे। अर्जुन के मन में सहज प्रश्न आया कि जब भीम अपना प्रिय कार्य अंधेरे में कर सकते हैं, तो वह क्यों नहीं ? बस यहीं से उन्होंने घने अंधकार में ध्वनि के आधार पर तीर चलाने की कला का अभ्यास किया और धीरे-धीरे शब्दभेदी बाण चलाने में विशेषज्ञता प्राप्त कर ली।
विद्यार्थियों में यदि लगन हो तो वह किसी भी विद्या एवं कला में सर्वश्रेष्ठ हो सकता है, यह अर्जुन ने अपने छात्र जीवन से हमें सिखाया है।एक और उदाहरण है। एक बार आचार्य द्रोण के आश्रम में सारे शिष्य खेल रहे थे। आचार्य अपने पुत्र अश्वत्थामा को एकांत में चक्रव्यूह की विद्या सीखा रहे थे। नया सीखने के प्रति अर्जुन में जबरदस्त लगन एवं उत्कंठा थी। वह खेलना छोड़कर आचार्य के पास सीखने पहुँच गया। गुरु का प्रिय तो वह था ही। उसकी जिज्ञासु वृति को आचार्य भी मना नहीं कर सके। अर्जून ने यह विद्या सीखी। महाभारत युद्ध के समय आचार्य द्रोण के अलावा चक्रव्युह विद्या के दो ही पूर्ण जानकार थे- अर्जुन और अश्वत्थामा। अध्ययन और अभ्यास के प्रति जबरदस्त लगन ही विद्यार्थी को महान बनाती हैं।
अर्जुन की महानता का एक और कारण उसका जीवन भर विद्यार्थी बने रहना है। वह लगातार अध्ययनरत रहा, सीखता रहा, साधना करता रहा। वनवास के समय जब शेष पांडव विविध प्रकार से वनवास अवधि व्यतीत कर रहे थे, अर्जुन ने उस समय भी नए शास्त्रों का शोध एवं निर्माण जारी रखा।नया सीखने की इतनी तीव्र उत्कंठा कि वह अन्य लोको में गया, तपस्या की (शोध पूर्वक साधना की)| नागलोक, इन्द्रलोक से विविध अस्त्र-शस्त्र लाया तो भगवान शिव एवं ब्रह्मा की साधना कर उनसे क्रमश: पाशुपतये अस्त्र एवं ब्रह्मास्त्र भी प्राप्त किए। धनुर्विधा में विशेषज्ञ होना, निष्णात होना, यह लक्ष्य तय कर वह लगातार उस दिशा में प्रयत्नशील रहा। अच्छा विद्यार्थी भी ऐसा ही होता है जो अपने लक्ष्य के प्रति सतत प्रयत्नशील रहे।
अर्जुन का यह विद्यार्थीपन कुरुक्षेत्र के मैदान में भी बना रहा। एक विद्यार्थी की तरह ही उसने सहज भाव से अपने प्रश्न, जिज्ञासाएं, आशंकाएं श्री कृष्ण से पूछी। अर्जुन के इस विद्यार्थीपन का लाभ पूरे विश्व को मिला। श्रीमद्भगवत् गीता के रूप में ईश्वर का अमृत संदेश पुरे संसार को मिला जो 5000 से अधिक वर्ष बाद आज भी उपयोगी है,शाश्वत है। हम यह जानते ही है कि गीता भगवान श्रीकृष्ण एवं अर्जुन के मध्य का वार्तालाप है।
श्रीमद्भगवद्गीता में शिष्य के रूप में अर्जुन ने एक अद्भूत आदर्श हमारे सामने रखा है। गुरु के प्रति अटूट श्रद्धा , भगवान् उसे शिक्षा प्रदान करे, शिष्यत्व प्रदान इसके लिए विनम्रता पूर्वक आग्रह करना, गुरु के कथन पर विश्वास, पूर्ण समर्पण भाव एवं अपनी कमजोरियां स्वीकारना अर्जुन को श्रेष्ठ शिष्य बनाती है।उसने अपनी दुर्बलताओं एवं अज्ञान को छिपाया नहीं है। गीता का प्रारम्भ ही उनके द्वारा अपनी मन: स्थिति को व्यक्त करने से ही होता है। वे कहते है-
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति ।
वेपथुश्च शरीरे में रोमहर्षश्च जायते৷৷
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्वक्चैव परिदह्यते ।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः ॥
(श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 1 श्लोक 28,29)
वे कहते है कि युद्ध भूमि में खड़े अपने इन बंधुओं को देखकर मेरे अंग शिथिल हो रहे हैं और मुख सूख रहा है। मेरे शरीर में कम्पकपी (कम्पन) एवं रोमांच हो रहा है, हाथ से गाण्डीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी बहुत जल रही है, मेरा मन भ्रमित हो रहा है और मैं खड़ा रहने में समर्थ नहीं हूं।” अपनी दुर्बलता को छिपाकर यदि अर्जुन बिना उत्साह एवं इच्छा के कर्म (युद्ध) करते तो परिणाम भी संदेह पूर्ण ही रहता।अर्जुन ने कमजोरी छिपाने की बजाय अपनी मनःस्थिति व्यक्त की तो उसका समाधान भी हुआ।
अर्जुन की एक और विशेषता उसकी जिज्ञासु प्रवृति है। जब तक वह संतुष्ठ नही हुए, तब तक प्रश्न पूछते रहे। यहां एक बात और भी है। अर्जून ने प्रश्न प्रसाद के लिए नही पूछे,कुतर्क अथवा वाग्विलास के लिए प्रश्न नही पूछे। उसने अपने अज्ञान को दूर करने के लिए पूरी विनम्रता से प्रश्न पूछे। श्रीकृष्ण द्वारा दिए गए उत्तर को विनम्रतापूर्वक स्वीकार भी किया। मानव पुरे जीवन में स्वभावत: ऊहापोह में रहता है। विशेषरूप से किशोरावस्था ( विद्यार्थीकाल) में यह असमंजस पूर्ण स्थिति अधिक ही होती है। वह निर्णय नहीं कर पाता कि उसे क्या करना है? अनिश्चय की मनःस्थिति रहती है। ऐसे में यदि योग्य मार्गदर्शक मिल जाए तो वह अपने निर्णय में, कार्य में विजयी होकर ही रहता है। गीता में अर्जुन इसका श्रेष्ठ उदाहरण है।
जिस प्रकार सामान्य मानव गिरता है, पड़ता है, च्युत होता है, अपने कर्तव्य पथ से विचलित होता है और किसी कार्य को करने का निश्चय करने के बाद भी उस कार्य को करने में हिचकता है, उसी प्रकार अर्जून भी मानवीय दुर्बलताओं से ग्रस्त होकर वैसा ही आचरण करता है, इसीलिए वह हमारा सच्चा प्रतिनिधि है। उसने कोई बात छिपायी नहीं है। उसने स्वीकार किया है कि मैं विचलित (च्युत) हुआ हूँ । साथ ही उसने शिष्य भाव से योग्य मार्गदर्शन भी मांगा है और मार्गदर्शन मिलने पर सारी शंकाए छोड़कर योग्य आचरण करता है। यही उसकी महानता है, यही हमें सीखना है।
अर्जुन से सीखने के लिए एक बात और भी है-उसका अटळ आत्मविश्वास। गीता के पहले अध्याय के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि एक तरफ वह विचालित तो हुआ है किंतु साथ ही वह निर्भय एवं आश्वस्त है। उसके पास अटल आत्मविश्वास हैं। उसके कथन में कहीं भी हारने या मरने का डर नहीं हैं। युद्ध में एक हारता एवं एक जीतता है किंतु पूरी गीता में अर्जुन ने अपने हारने-मरने की बात नहीं की हैं, इसके विपरित उसकी ध्वनि निकलती है “मैं शत्रु को कैसे मारूं, क्यों मरूं? उसके मन में शत्रु सेना के भयंकर संहार के बाद की स्थिति को लेकर व्यथा है। वह कहते है-
कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः ।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत ।। 1.40৷৷
तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान् ।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव ॥
৷৷1.37৷৷
अर्थात् अपने ही बांधवों को मारकर क्या हम सुखी होंगे ? कुल का क्षय होगा, कुल धर्म
नष्ट होगा, पाप बढ़ेगा, वर्णशंकर पैदा होगे, इससे पितरों की भी अधोगति होगी, इत्यादि।
पहले अध्याय के श्लोक 35 से 45 तक अर्जून के इन मनोभावों का सुंदर शब्द चित्रण है।
किंतु कहीं भी उसके हारने का भाव नहीं है। हां, कुटुम्ब की रक्षा के लिए युद्ध विमुख
होने की बात अवश्य कही है। स्वयं के प्रति आत्मविश्वास का ऐसा भाव हम सबमें होना चाहिए।
श्रीमद्भगवद्गीता के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि अर्जुन कुछ भ्रमित हुए ,कुछ हताश हुए, थोड़े मोहित हुए और कुछ विचलित हुए। हमारे साथ भी अक्सर ऐसा ही होता है अत: उनकी और हमारी बीमारी एक जैसी है। अतः दवा भी वही काम आएगी। परन्तु यह प्रसंग द्वापर युग का है, अर्जुन की अपनी कुछ अद्भूत विशेषताएं थी और उसके गुरु भी भगवान श्रीकृष्ण थे जिनके कारण उसका काम दवा की कम मात्रा (dose) से चल गया, एक बार समझाने पर ही उन्हें गीता समझ आ गई किंतु हम तो कलयुग के सामान्य मानव है अत: वैसी बीमारी से मुक्ति के लिए हमें दवा की मात्रा बढ़ानी होगी। गीता को बार-बार पढ़ना होगा, उसे समझकर जीवन व्यवहार में लाना होगा, इससे हम भी अपने जीवन मे निष्काम कर्म एवं सफलता की ओर बढ़ेगे।
प्रत्येक कर्म किसी न किसी अपेक्षा (धन, विजय, यश इत्यादि) से ही किया जाता है किन्तु अर्जुन की यह कर्म प्रेरणा नष्ट हो गयी थी। उसे राज्य, सुख, वैभव इत्यादि नही चाहिए थे। वे कहते है-
न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च ।
৷৷1.32৷৷ एवं
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते ॥ अध्याय 1 श्लोक 35
(अर्थात तीनों लोको के राज्य के लिए भी मैं इन सबको मारना नहीं चाहता तो पृथ्वी के लिए कहना ही क्या। )
वहाँ किसी भी प्रकार के भौतिक सम्पन्नता के तत्व अर्जुन के कर्म की आधार भूमिका के रूप में नहीं थे। उसकी स्थार्थपरता नष्ट हो गयी थी। यह स्वार्थपरता नष्ट होना तो अच्छा ही है। किंतु कर्म की प्रेरणा, कर्म की इच्छा, नष्ट नहीं होनी चाहिए | सारे स्वार्थ त्यागने के बाद कर्म की प्रेरणा ही क्या है ? इसी का उत्तर देने के लिए गीता है।
अपनी मनोदशा को श्रीकृष्ण के सम्मुख व्यक्त करने के बाद अर्जुन ने उनसे मार्गदर्शन की याचना की । वास्तव में शिक्षा उसी को मिलती है जो उसे प्राप्त करने का इच्छुक है। जिज्ञासु व्यक्ति को मिली हुई शिक्षा स्थायी होती है। अर्जुन कहते है-
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः ।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ॥ 7/2
अर्थात् में आपका शिष्य हुँ एवं आपकी शरण में आया हुँ अत: जो साधन मेरे लिए कल्याण कारक है, वह मुझसे कहिये।”
अर्जुन का अपने गुरु / मार्गदर्शक के प्रति यह आत्मसमर्पण अत्यंत महत्वपूर्ण है। अपने शिक्षक के प्रति विनम्रता, विश्वास एवं पूर्ण श्रद्धा थे , तीन बातें शिक्षार्थी के लिए आवश्यक है। ऐसा होने पर ही शिक्षा आचरण (व्यवहार) में आती है। जो शिक्षा व्यवहार में न आए , केवल पाठ्यपुस्तकों में रहे, उसकी समाज एवं जीवन के लिए कोई उपयोगिता नहीं है। अतः हम जिससे मार्गदर्शन, शिक्षा चाहते है उसके प्रति पूर्णतया श्रद्धावान रहना चाहिए। केवल बहस करने के लिए अथवा आनंद लेने के लिए शिष्य को प्रश्न नहीं करना चाहिए । प्रश्न सारगर्भित एवं जिज्ञासु प्रकृति के होने चाहिए | विषय की स्पष्टता होने तक, विषय-वस्तु पूरी तरह समझ में आने तक परि प्रश्न – (पूरक प्रश्न) पूछना चाहिए, यह भी अर्जुन हमें सीखाते हैं। कहीं संशय हो तब भी गुरु से विषय को स्पष्ट के लिए कहना ही चाहिए।
गीता के तीसरे अध्याय के प्रारम्भ में ऐसी ही स्थिति बन जाती है जब अर्जुन को ज्ञान एवं कर्म में से अधिक श्रेष्ठ क्या है ? यह समझ नहीं आता है तो वह उलाहने जैसे भाव से (उलाहना भी आदर पूर्वक) श्रीकृष्ण से कहते हैं-
व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे ।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् ॥
(२ अध्याय 3
अर्थात् “आप मिले-जुले वाक्यों से मेरी बुद्धि को मोहित (भ्रमित) कर रहे है इसलिए निश्चित करके वह एक बात कहिये जिससे मेरा कल्याण हो।”
इस श्लोक से तत्कालिन भारत में गुरू-शिष्य के मध्य आत्मीय संबंधो की झलक भी मिलती है। शिक्षक शिक्षार्थी के मध्य आत्मीय संबंध होने चाहिए तथा बड़ी कक्षाओं में सम्बंध मैत्रीपूर्ण भी होने चाहिए। यद्यपि अर्जुन ने श्रीकृष्ण को गुरु माना, भगवान माना, उन्हें सर्वेसर्वा मानकर स्वयं को उनके प्रति समर्पित कर दिया, तब भी श्रीकृष्ण उन्हें मित्र कहकर ही संबोधित करते रहे। यह अच्छे शिक्षक की विशेषता है। विद्यार्थी आदेशपूर्ण व्यवहार अथवा तानाशाही की बजाय मित्रतापूर्ण व्यवहार से जल्दी सीखते हैं। इस प्रकार गीता का भी संदेश है कि गुरु-शिष्य संबंध मधुर-आत्मीय होने चाहिए।
भगवद्गीता वास्तव में भारतीय शिक्षा शास्त्र का महान ग्रंथ है। गीता की विषयवस्तु, दर्शन एवं तत्व तो अद्भूत है ही, उसे कहने की शैली भी अनुकरणीय है। विद्यार्थी को अपने प्रश्न / जिज्ञासा अपने गुरु के सामने कैसे व्यक्त करनी चाहिए, यह बताते हुए चौथे अध्याय में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं-
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः ।৷ अध्याय 4 श्लोक 34
अर्थात् ज्ञान प्राप्त करने के लिए उसे जानने वाले ज्ञानीजन के पास जाना चाहिए,उन्हे आदरपूर्वक प्रणाम करना चाहिए, उनकी सेवा करनी चाहिए एवं कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करना चाहिए, तब वे ज्ञानीजन ज्ञान का उपदेश देते हैं।
गीता का ज्ञान एवं कर्म संदेश तो अद्भूत है ही उसका समापन भी उतना ही अनुकरणीय एवं प्रेरक है। अच्छा शिक्षक छात्रों को पढ़ाने के बाद अवश्य पूछता है कि उन्हें समझ में आया अथवा नहीं । छात्रों को समझ में आए बिना केवल पाठ्यक्रम पूरा करवाने के लिए आगे-आगे पढ़ाते रहने में अध्यापन की सार्थकता नहीं है। अत: गीता में श्रीकृष्ण का यह अंतिम श्लोक समस्त शिक्षकों के लिए प्रेरणा वाक्य है।
भगवान श्रीकृष्ण एक आदर्श शिक्षक के रूप में अर्जून से पूछते है कि अभी तक जो इतना समझाया वह समझ में आया भी या नहीं। वे कहते हैं-
कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा ।
कच्चिदज्ञानसम्मोहः प्रनष्टस्ते धनञ्जय ॥
भावार्थ : हे पार्थ! क्या इस (गीताशास्त्र) को तूने एकाग्रचित्त से श्रवण किया? और हे धनञ्जय! क्या तेरा अज्ञानजनित मोह नष्ट हो गया?।। (अध्याय 18/ श्लोक 72)
अर्थात ” हे पार्थ ! अभी जो समझाया वह तुने एकाग्रचित्त होकर सुना? और तेरा अज्ञान व
सम्मोह नष्ट हुआ या नहीं?”
इसी प्रकार श्रीमद्भगवत गीता में अर्जुन का अंतिम श्लोक भी सारे विद्यार्थियों के लिए आदर्श , अनुकरणीय हैं। सारी बात समझ में आने के बाद अर्जुन ने स्वयं को पूरी तरह से अपने मार्गदर्शक श्रीकृष्ण के चरणों में समर्पित कर दिया। वे कहते है-
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वप्रसादान्मयाच्युत ।
स्थितोऽस्मि गतसंदेहः करिष्ये वचनं तव ॥अध्याय 18 श्लोक 73
हे अच्युत, आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है, और अब में आपके कहे अनुसार ही करूंगा। गुरू के प्रति यह विश्वास चाहिए, तब सफलता मिलती है और अर्जुन भी विजयी ही हुआ। इस प्रकार श्री गीता जी शिक्षकों एवं विद्यार्थियों दोनों के लिए पठनीय, स्मरणीय एवं अनुकरणीय है। अर्जुन ने एक अद्भूत विद्यार्थी का जीवन चरित्र हमारे सामने रखा है। ऐसे गुरु एवं ऐसे शिष्य जहां हो, वहां विजय होनी ही है। अत: गीता के अंतिम श्लोक में संजय भी कहते है कि जहां श्रीकृष्ण एवं अर्जुन है, वहां श्री (वैभव), विजय एवम विभूति होती है।
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः ।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ॥
॥ ॐ तत्सत् ।।
संदर्भ-
गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित महाभारत
गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित श्रीमद्भगवद्गीता
1श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय १
श्लोक 28, 29
2 श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय १
श्लोक-40
3 श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय १
श्लोक 37
4 श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय १
श्लोक 32
5 श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय १
श्लोक 35
6 श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय २
श्लोक 7
7 श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ३
श्लोक 2
8 श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ४
श्लोक 34
9श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 18
श्लोक 72
10 श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 18
श्लोक 73
11 श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 18
श्लोक – 78