देवेन्द्रराज सुथार / बागरा. पर्यावरण को बचाना आज हमारी सबसे बड़ी जरूरत है। विकास की अंधी दौड़ में प्रकृति का लगातार दोहन हो रहा है। ऐसे में समन्वय बना रहे इस पर हमें ध्यान देना होगा। हमारी परंपरा और संस्कृति में पर्यावरण के संरक्षण की बात कही गई है। पर्यावरण के बगैर मानवीय जीवन का अस्तित्व संभव नहीं है। दीपावली साफ सफाई का पर्व है। दीपावली बुराई पर अच्छाई का पर्व है। दीपावली शीत ऋतु के आगमन का पर्व है। लेकिन दीपावली के त्योहार के महीने भर पहले ही बाजारों में पटाखों की दुकानें सजने लग जाती हैं। प्रतिवर्ष दीपावली पर करोड़ों रुपयों के पटाखों का व्यापार होता है। यह सिलसिला कई दिनों तक चलता है। कुछ लोग इसे फिजूलखर्ची मानते हैं, तो कुछ इसे परंपरा से जोड़कर देखते हैं। पटाखों से बसाहटों, व्यावसायिक, औद्योगिक और ग्रामीण इलाकों की हवा में तांबा, कैल्शियम, गंधक, एल्यूमीनियम और बेरियम प्रदूषण फैलाते हैं। उल्लिखित धातुओं के अंश कोहरे के साथ मिलकर अनेक दिनों तक हवा में बने रहते हैं। उनके हवा में मौजूद रहने के कारण प्रदूषण का स्तर कुछ समय के लिए काफी बढ़ जाता है।
गौरतलब है कि विभिन्न कारणों से देश के अनेक इलाकों में वायु प्रदूषण सुरक्षित सीमा से अधिक है। ऐसे में पटाखों से होने वाला प्रदूषण भले ही अस्थायी प्रकृति का होता है लेकिन उसे और अधिक हानिकारक बना देता है। औद्योगिक इलाकों की हवा में विभिन्न मात्रा में राख, कार्बन मोनोऑक्साइड, कार्बन डाइऑक्साइड, सल्फर डाइऑक्साइड और अनेक हानिकारक तथा विषैली गैसें और विषाक्त कण होते हैं। इन इलाकों में पटाखे फोड़ने से प्रदूषण की गंभीरता तथा होने वाले नुकसान का स्तर कुछ दिनों के लिए बहुत अधिक बढ़ जाता है। महानगरों में वाहनों के ईंधन से निकले धुएं के कारण सामान्यतः प्रदूषण का स्तर सुरक्षित सीमा से अधिक होता है। पटाखे उसे कुछ दिनों के लिए बढ़ा देते हैं। उसके कारण अनेक जानलेवा बीमारियों मसलन – हृदय रोग, फेफड़े, गॉल ब्लैडर, गुर्दे, यकृत एवं कैंसर जैसे रोगों का खतरा बढ़ जाता है।
इसके अलावा पटाखों से मकानों में आग लगने तथा लोगों खासकर बच्चों के जलने की संभावना होती है एवं हवा के प्रदूषण के अलावा पटाखों से ध्वनि प्रदूषण होता है। कई बार शोर का स्तर सुरक्षित सीमा को पार कर जाता है। यह शोर कई लोगों तथा नवजात बच्चों की नींद उड़ा देता है। नवजात बच्चों और गर्भवती महिलाओं को डराने के साथ यह पशु-पक्षियों तथा जानवरों के लिए भी अभीष्ट नहीं है।
इसके अतिरिक्त पटाखे पृथ्वी के जीवन कवच ‘ओजोन परत’ को भी भारी नुकसान पहुंचाते हैं। पटाखों से निकले धुएं के कारण वातावरण में दृश्यता घटती है। दृश्यता घटने से वाहन चालकों को कठिनाई होती हैं और कई बार यह दुर्घटना का कारण बनती है। इसके अलावा पटाखे बनाने वाली कंपनियों के कारखानों में होने वाली दुर्घटनाएं और मौतें कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिनसे सबक लेना चाहिए। इन मुद्दों में स्वास्थ्य मानकों की अनदेखी, बाल मजदूरी नियमों की अवहेलना या असावधानी मुख्य हैं। इन सब दुष्परिणामों के बाद सवाल है कि क्या पटाखे फोड़ना हमारे लिए जरूरी हैं? क्या पटाखे फोड़ने से ही दीपावली मनाना संभव है? क्या बिना पटाखों के दीपावली नहीं मनाई जा सकती है? क्या पटाखों के जरिये हम अपने रुपयों में आग नहीं लगा रहे हैं? क्या पटाखे फोड़कर हम पर्यावरण प्रदूषण नहीं फैला रहे हैं? करोड़ों सूक्ष्म जीवों ने हमारा क्या बिगाड़ा हैं? कुछ नहीं ना, तो हम पटाखे फोड़ के उन सूक्ष्म जीवों को क्यों मारे?
हमारे धर्म ग्रंथों में दीपक जलाने की बात कही गयी है। आतिशबाजी का कई नामोनिशान तक नहीं है। पूर्वजों ने भी इसी का पालन किया दीपक जलाकर, रंगबिरंगी रोशनी के माध्यम से इस पर्व को खुशी की सौगात दी है। ज्यादा ही मनीषा हुई तो फुलझड़ी जला के मन को प्रसन्न कर लिया। आतिशबाजी और पटाखेबाजी केवल आधुनिक विकृतियां हैं। बेकार की फिजूलखर्ची है। क्षण भर में लाखों रुपयों का नुकसान के साथ-साथ अमूल्य पर्यावरण को भी हानि है। अतः हमें मानवीय नजरिया रखते हुए ‘शुभ दीपावली, अशुभ पटाखा’ की परंपरा की शुरुआत करनी चाहिए। दीपावली का त्योहार चार दिनों में ही सम-सामयिक समाज की नैतिकता के विभिन्न आयामों पर प्रकाश डालता है ये क्या सोचा है आपने? आंखों में फुलझड़ियों की चमक, जिह्वा पर खील-बताशे, चीनी के खिलौनों की मधुरता और हाथों में दीया आरती की थाली लिए छत, गलियारों और सीढ़ियों पर ऊपर-नीचे भागते बच्चे सरलता और संतुष्टि का आयाम है।