– 1985 के बाद हुए विधानसभा चुनावों में केवल एक बार 2008 में ही कांग्रेस जालोर सीट जीत पाई
दिलीप डूडी, जालोर
इस वर्ष अंत में होने वाले विधानसभा चुनावों को लेकर राजनीतिक पार्टियों ने अपने समीकरण साधने शुरू कर दिए है। विशेषकर सत्तारूढ़ पार्टी कांग्रेस सरकार को रिपीट करने के प्रयास में इस बार अधिक मेहनत करने में जुटी हुई है। हाल ही में कांग्रेस प्रदेश प्रभारी सुखविंदरसिंह ने भी प्रदेश की कमजोर 40 सीटों पर विशेष फोकस करने की बात कही है, उन 40 सीटों में जालोर विधानसभा सीट भी शामिल बताई जा रही है।
क्योंकि यहां पिछले सात मुकाबलों में केवल एक बार ही कांग्रेस यह सीट जीत पाई है। अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित इस सीट को जीतना पार्टी के लिए चुनौती बना हुआ है। ऐसे में देखना होगा कि पार्टी जो रणनीति तैयार कर रही है, क्या उसके जरिए जालोर जीतने में सफल हो पाएंगे। यह तो चुनाव परिणाम के बाद ही पता चल पाएगा, लेकिन पार्टी के नेताओं में एक बार फिर से सुगबुगाहट शुरू हो चुकी है।
1985 के बाद से जालोर सीट पर कांग्रेस का बुरा दौर
जालोर विधानसभा क्षेत्र सीट अनुसूचित जाति (एससी) वर्ग के लिए आरक्षित सीट है। सम्भवतया जिला मुख्यालय एससी आरक्षित एकमात्र सीट है। इसके बावजूद यहां कांग्रेस बेहद कमजोर हो चुकी है। इतनी कमजोर कि 1985 के बाद हुए सात विधानसभा चुनावों में केवल एक बार ही जालोर सीट कांग्रेस पार्टी जीत सकी है। यहां पर 1985 के विधानसभा चुनावों में मांगीलाल आर्य कांग्रेस से विधायक बने थे, उसके बाद हुए चुनाव में वर्ष 2008 में रामलाल मेघवाल को छोड़कर हर बार भाजपा उम्मीदवार ही जीता है। 1990 व 1993 में भाजपा के जोगेश्वर गर्ग यहां से विधायक चुने गए।
वहीं 1998 में यहां से भाजपा के गणेशीराम मेघवाल, 2003 में जोगेश्वर गर्ग, 2013 में अमृता मेघवाल व 2018 में भाजपा के जोगेश्वर गर्ग ने जीत हासिल की है। हालांकि 2008 में कांग्रेस के जीतने से लगातार तीन बार हार वाली सीटों में भले ही शामिल न किया गया हो, लेकिन पिछले 35 सालों में छह बार हार कांग्रेस के लिए बड़ी चुनौती बनी हुई है। इस कारण इस सीट को भी कांग्रेस पार्टी ने विशेष सीटों में शामिल करते हुए विशेष फोकस डाल दिया है।
मजबूत नेता की कमी बड़ी कमजोरी
जालोर एससी के लिए आरक्षित सीट है। यहां इस वर्ग के मजबूत नेताओं की कमी महसूस की गई। यहां रामलाल मेघवाल व पारसाराम मेघवाल ने जरूर कांग्रेस को मजबूत करने का काम किया, लेकिन वे भी जिले से बाहर या यूं कहें प्रदेश स्तर पर मजबूती कायम नहीं कर पाए। पारसाराम मेघवाल एक बार सांसद जरूर बने, लेकिन उसके बाद लोकल स्तर तक सिमट गए। दो साल पहले उनका स्वर्गवास हो गया। वहीं रामलाल मेघवाल ने पार्टी के लिए काफी मेहनत की, लेकिन प्रदेश स्तर पर सीधी एंट्री वाली स्थिति कायम नहीं कर पाए, बार बार चुनाव हारने के कारण सहानुभूति की लहर ने केवल 2008 में उन्हें एक बार विधायक बना दिया, लेकिन उसके बाद गुटबाजी के कारण वे भी कमजोर हो गए। अब तो उनकी उम्र भी आड़े आ रही है। इनके अलावा मजबूत नेता तैयार नहीं हो पाया है।
युवाओं की लंबी फेहरिस्त, लेकिन मजबूत पकड़ नहीं
जिस प्रकार से कांग्रेस पार्टी युवाओं को आगे लाने का प्रयास कर रही है, उसी प्रकार जालोर की सीट पर भी युवाओं की लंबी फेहरिस्त है, लेकिन अभी इन युवाओं की मजबूत पकड़ नहीं बन पाई है। ग्रासरूट पर मजबूत पकड़ की कमी होने के कारण भाजपा से मुकाबला नहीं कर पा रहे है। यही कारण है कि यहां निकाय और पंचायत राज चुनावों में भाजपा ने काँग्रेस को चारों खाने चित किया है। जालोर विधानसभा सीट की सायला व जालोर दोनों पंचायत समिति की प्रधान सीट पर भाजपा का कब्जा है, शहरी निकाय पर भी भाजपा का सभापति व जिला परिषद की सीट पर भी भाजपा का जिला प्रमुख काबिज है। इस बार चुनावों के लिए यहां से पूर्व की प्रत्याशी मंजू मेघवाल, डॉ भरत कुमार, ब्लॉक अध्यक्ष भोमाराम मेघवाल, कृष्ण कुमार मेघवाल, सुरेश मेघवाल, सुष्मिता गर्ग, दीपाराम, रमेशकुमार जैसे युवा तैयारी में जुटे हुए है, लेकिन अभी तक मजबूत समर्थक तैयार नहीं कर पाए है, जिससे कि भाजपा के उम्मीदवार को आसानी से टक्कर दे सके।
प्रतिष्ठा का सवाल बनी हुई जालोर सीट
पिछले सात विधानसभा चुनावों में से छह चुनाव हार जाने के कारण यह जालोर सीट इस बार कांग्रेस के लिए प्रतिष्ठा का सवाल बन गई है। प्रतिष्ठा इसलिए कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के सिपहसलार में शामिल पुखराज पाराशर स्वयं यहां से है। उन्हें इस बार सरकार ने राजस्थान राज्य जन अभाव अभियोग निराकरण समिति का अध्यक्ष भी बना दिया है। ताकि वे यहां की जनता के बीच पार्टी की पैठ कायम कर सके और आगामी चुनावों में इसका फायदा मिल सके, लेकिन मजबूत उम्मीदवार के अभाव में कांग्रेस के लिए यहां जीत आसान नहीं होगी। मजबूत उम्मीदवार वही होगा जो धरातल स्थल पर नेता नहीं कार्यकर्ताओं को जोड़ने का काम करेगा। क्योंकि फिलवक्त यहां नेता खूब मिलेंगे, लेकिन कार्यकर्ता नहीं दिखेंगे।