14 मई को हर साल मातृत्व दिवस मनाया जाता है और इस अवसर पर सुर्खियां केवल शहरी एवं ऑफिस में काम करने वाली महिलाओं को दी जाती है। बेशक वे महिलाएं, जो एकल मां हैं और अपने बच्चों का लालन-पालन कर रही हैं, तारीफ की हकदार हैं लेकिन भारत का हृदय जब गांवों में बसता है, तब ग्रामीण क्षेत्रों की बात करना भी जरूरी है कि ग्रामीण परिवेश में रह कर एकल माएं किन चुनौतियों का सामना करते हुए, अपने बच्चों का लालन पालन कर रही हैं।
बालाघाट गांव, फतेहपुर प्रखंड, गया जिला की रहने वाली सुशीला देवी के पति का देहांत 8-9 साल पहले ही हो गया था। उनके पति को अंदरुनी बीमारी थी और शराब की लत इतनी ज्यादा थी कि उन्हें अपनी जान गंवानी पड़ी। सुशीला देवी के चार बच्चे हैं। सबसे बड़ी बेटी की उम्र केवल 14 साल है, छोटी बेटी की उम्र 13 साल है, एक बेटा है, जो महज 10 साल का है और एक सबसे छोटी बेटी है, जिसकी उम्र केवल 8 साल है। सुशीला बताती हैं कि उनकी शादी 18 वर्ष की दहलीज पार करने से पहले ही हो गई थी लेकिन पति के असमय मृत्यु के कारण अब उनके घर की जिम्मेदारी उनके ही कंधे पर है।
वे एक राज-मजदूर हैं और निर्माणाधीन भवनों में ईंट ढोने का काम करती हैं, जिसके लिए प्रत्येक दिन के उन्हें 300 रुपये की मजदूरी मिलती है लेकिन असंगठित क्षेत्र में काम करने के कारण आमदनी कभी निश्चित नहीं होती इसलिए वे घरों में झाड़ू-पोछा और बर्तन धोने का काम भी करती हैं, जहां से महीने के 1000 रुपये मिल जाते हैं। उनका कहना है, “इतने कम पैसे और आजकल की महंगाई में अकेले बच्चों की परवरिश करना बहुत कठिन है। मुझे ऐसा लगता है कि मैं एक एकल मां नहीं बल्कि एक मजबूर मां हूं, जो हालातों से लड़ रही है।”
चांद गांव, मनिका बिशुनपुर, प्रखंड मुसहरी, मुजफ्फरपुर जिला की रहने वाली सीमा देवी भी एकल मां हैं। वे 30 वर्ष की हैं। उनके पति का देहांत 8 साल पहले हो गया था। उनके दो बेटे हैं, जिनमें से पहले की उम्र 14 साल है और दूसरे बेटे की उम्र 10 साल। वे मुजफ्फरपुर स्थिति बेला में कुरकुरे की फैक्ट्री में काम करती हैं, जो सुबह के 9 बजे से रात के 7 बजे तक चलती है।
10 घंटे काम करने के बावजूद भी महीने की तनख्वाह केवल 3000 रुपये है, जिससे घर चलाना मुश्किल होता है लेकिन वे अपने पति के देहांत के बारे में बात नहीं करना चाहती क्योंकि उन्हें ऐसा लगता है कि काश, अगर आज उनके पति होते तो शायद उन्हें बाहर निकल कर काम करने की नौबत नहीं आती क्योंकि वे बताती हैं, एक महिला के लिए बाहर निकल कर काम करना बहुत मुश्किल होता है क्योंकि बाहर जाकर काम करने पर घर के कामों में देर हो जाती है। बच्चे इतने लंबे वक्त तक आंखों से दूर होते हैं इसलिए उनके अच्छे परवरिश की चिंता भी लगी रहती है।
सीतामढ़ी में बतौर सामाजिक कार्यकर्ता कार्य कर रहे आलोक चंद्रप्रकाश बताते हैं, “एक विधवा माँ ग्रामीण समाज के लिए कभी भी हालिया परिघटना नहीं रही है। बाल-विवाह, बेमेल विवाह और विपरीत परिस्थितियों में मजदूरी के दौरान स्वास्थ्य खराब होना और फिर समुचित इलाज के अभाव में पति की मृत्यु। ऐसी परिस्थितियों में ग्रामीण विधवा माँएं बड़ी मुश्किल से अपना एवं अपने बच्चों का लालन पालन कर रही है।
गाँव में आज भी महिला उसपर भी विधवा महिला के लिए कृषि से इतर क्षेत्रों में रोजगार ढूंढना संभव नहीं है। छोटे जोत एवं अधिकांश परिस्थिति में भूमिहीन परिवार की ये एकल माएं अपने भरण-पोषण के लिए जाए तो जाए कहाँ? सरकार की विभिन्न योजनायें अपने ही नौकरशाही विसंगतियों के भेंट चढ़ जा रही है। मातृत्व दिवस के शुभकामनायी शोर और मातृत्त्व के महिमा मंडन के बीच इस समस्या पर एक ठोस नीतिगत पहल की ज़रूरत है।”
अगर शहरी और ग्रामीण इलाकों का तुलनात्मक अध्ययन किया जाए, तब पता चलता है कि ग्रामीण हिस्से में कार्य करने वाली महिलाओं के लिए एकल मां बनना चुनौतीपूर्ण कार्य है क्योंकि उन्हें ना ही वे सुविधाएं मिलती हैं और ना वैसा पद कि वे एक एकल मां हैं बल्कि माएं इसे अपनी मजबूरी समझती हैं कि उन्हें एक एकल मां के तौर पर अपनी भूमिका निभानी पड़ रही है। उन्हें अपने बच्चों के लिए क्रेच की सुविधा नहीं मिलती, उन्हें माहवारी के दौरान छुट्टी नहीं मिलती और ना ही बीमार रहने पर किसी तरह की सहानुभूति मिलती है।
मां के बलिदानों की तुलना किसी से नहीं की जा सकती और मातृशक्ति का वर्णन अक्षरों में नहीं समेटा जा सकता लेकिन केवल शहरी एकल माताओं को सुर्खियां बनाना भी एकतरफा है जबकि मां तो मां है, उसके संघर्षों को सराहा जाना चाहिए, ना कि महिमामंडन द्वारा अन्य मांओं के बलिदान को नकारा जाना चाहिए।